किसानों का प्रदर्शन
– फोटो : पीटीआई (फाइल)
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सार
एमएसपी यानी न्यूनतम समर्थन मूल्य, इसकी जानकारी सभी किसानों को नहीं है। आज भी नहीं है। अनेक राज्यों में किसानों की हालत ऐसी है कि वे दो वक्त की रोटी और पशुओं के चारे का जुगाड़ करने के लिए सुबह से शाम तक अपने खेतों में लगे रहते हैं…
विस्तार
अखिल भारतीय किसान संघर्ष समन्वय समिति ‘एआईकेएससीसी’ के वरिष्ठ सदस्य अविक साहा ने उन पांचों बातों के बारे में विस्तार से बताया है, जो इस आंदोलन की मौजूदा स्थिति के लिए जिम्मेदार हैं। उन्होंने किसान संगठनों में पड़ी फूट को लेकर भी एक बड़ा खुलासा किया है।
अविक साहा ने बताया, जब ये आंदोलन शुरू हुआ तो उस वक्त ट्रेन की सामान्य सेवा बंद थी। इसके चलते बहुत से किसान संगठनों के पदाधिकारियों की फेस-टू-फेस बैठक तक नहीं हो पाई। ऐसा नहीं है कि किसान संगठनों ने इस आंदोलन को दूसरे राज्यों तक पहुंचाने का प्रयास नहीं किया। ऐसी कोशिशें की गई थीं कि देश के सभी हिस्से इस आंदोलन से जुड़ जाएं। वहां के सभी नहीं तो थोड़ी संख्या में किसान दिल्ली पहुंच जाते। कई संगठन तैयार हुए तो उनके सामने दिल्ली तक पहुंचने का संकट खड़ा हो गया।
- हरियाणा, पंजाब, यूपी या राजस्थान के किसान तो ट्रैक्टर लेकर पहुंच गए, मगर महाराष्ट्र, तमिलनाडु, आंधप्रदेश, केरल, उड़ीसा, मध्यप्रदेश, बिहार, छत्तीसगढ़, झारखंड, पश्चिम बंगाल और उत्तर-पूर्व के राज्यों के किसान दिल्ली तक कैसे आ सकते थे। केंद्र सरकार ने उनके लिए स्पेशल ट्रेन तो चलाई नहीं थीं। ये पहली वजह रही है।
- अब दूसरे कारण की बात करते हैं। एमएसपी यानी न्यूनतम समर्थन मूल्य, इसकी जानकारी सभी किसानों को नहीं है। आज भी नहीं है। अनेक राज्यों में किसानों की हालत ऐसी है कि वे दो वक्त की रोटी और पशुओं के चारे का जुगाड़ करने के लिए सुबह से शाम तक अपने खेतों में लगे रहते हैं। सरकार खुद कह चुकी है कि एमएसपी तो 6 फीसदी किसानों को मिलता है। इसका मतलब, बाकी 94 फीसदी किसान, जिनकी तादाद 50 करोड़ से ज्यादा है, उन्हें तो एमएसपी का स्वाद ही नहीं मालूम। एमएसपी के अधिकार से अधिकांश किसान वंचित हैं। किसान संगठन, सभी लोगों तक एमएसपी की जानकारी नहीं पहुंचा सके। इसके चलते सभी किसानों को आंदोलन से नहीं जोड़ा जा सका।
- तीसरा बिंदु यह है कि दीर्घ समय से लड़ते-लड़ते किसान की हार मानने की मानसिकता बन जाती है। वह सोचने लगता है कि सदियों से उसके साथ अन्याय हो रहा है। जो भाग्य उनके साथ जन्म लेता है, वह उन्हीं के साथ मर जाता है। इसे इस तरह समझें कि जो किसान दशकों से अपने हक के लिए लड़ रहा है, जब उसे कुछ नहीं मिला तो अब आगे क्या होगा। किसान के दिमाग में यह बात बैठ गई है। इस वजह से आंदोलन में किसानों की भारी तादाद नहीं जुट सकी।
- चौथा कारण यह रहा है कि कई राज्यों में चुनाव का माहौल है। पश्चिम बंगाल, असम, तमिलनाडु और केरल में विधानसभा चुनाव की तैयारियां चल रही हैं। यहां से किसानों को एकत्रित कर दिल्ली नहीं लाया जा सका।
- अविक साहा ने पांचवें कारण के तौर पर कहा कि किसी भी आंदोलन को देशव्यापी कहने में समय लगता है। देश के हर किसान तक आंदोलन की तपन पहुंचे, इसके लिए एक-माह का समय पर्याप्त नहीं है। इसमें साल और दशक तक लग जाते हैं। किसानों की आर्थिक हालत जैसी है, उससे सभी परिचित हैं। देश विचित्रमय है, वैसे ही किसान आंदोलन भी। ये एक शब्द है, मगर इसमें बहुत कुछ समाहित है। जैसे जमीन के मालिक किसान, भूमिहीन किसान, आदिवासी और खेती मजदूर आदि। अब इनकी माली हालत पर गौर करेंगे तो बहुत कुछ समझ आ जाएगा। इनका एक ही सपना होता है कि फसल का अच्छा दाम मिल जाए।
गणतंत्र दिवस पर बेंगलुरु में बहुत बड़ा प्रदर्शन हुआ, मगर उसे किसी ने नहीं दिखाया। दरअसल, लोग मान बैठे हैं कि देश का दिल दिल्ली है। जो दिल्ली में हो रहा है या दिखाया जा रहा है, लोग उसे ही सच से जोड़ देते हैं। किसान आंदोलन, एक दूसरे अंदाज में तेजी से आगे बढ़ रहा है। सरकार, इसे जितना जल्द समझ ले, उतना ही अच्छा है। इसे नजरअंदाज करने का नुकसान होगा।
अविक साहा ने किसान आंदोलन की कमियों को भी उजागर किया है। उन्होंने कहा कि कुछ कमियां रही हैं और किसान नेताओं में आपसी समझ का भी अभाव रहा है। उन्हें कहां पहुंचना था, इस बात पर सहमति थी, लेकिन कैसे पहुंचना है, इसे लेकर असहमति रही। किसान नेताओं की राय में फर्क देखा गया। जो भी हो, किसान के पास शांति का ही रास्ता है। वह जानता है कि बिना शांति के यह लड़ाई नहीं जीती जा सकती। जीवन मरण की लड़ाई है, किसान इसे जीत लेंगे, इसमें कोई शक नहीं है।
हमारा प्रयास है कि देश के 135 करोड़ लोगों को किसान की बात समझाई जाए। अभी बहुत से लोग राजनीतिक नजर से किसान आंदोलन को देख रहे हैं। उन्हें नहीं मालूम है कि वे किसे गाली दे रहे हैं। जैसा उनकी पार्टी कह देती है, वे वैसा ही करने लगते हैं। जब उनसे पूछा जाता है तो वह साफ बता भी देता है कि वह फलां दल का समर्थक है। बतौर साहा, किसान आंदोलन को आम जन से जोड़ा जाएगा। किसान अपनी लड़ाई जीतेगा, यह तय है।