भारत में हाल ही, आरएसएस (RSS) ने इस संहिता पर सार्वजनिक बहस किए जाने की बात कही, तो महाराष्ट्र की शिवसेना सरकार ने भी बीते दिनों इसके पक्ष में होने की बात कही थी. शिवसेना ने कहा था कि पूरे देश में समान नागरिक संहिता लागू की जाना चाहिए. हालांकि मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड ने इसका विरोध किया है. इन तमाम खबरों के बीच इसे समझना ज़रूरी हो जाता है.
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क्या बला है समान नागरिक संहिता?पिछले साल जब केंद्र सरकार ने जम्मू और कश्मीर राज्य से आर्टिकल 370 खत्म किया था, तबसे UCC को लेकर चर्चा ज़ोरों पर शुरू हुई थी. UCC का मतलब धर्म और वर्ग आदि से ऊपर उठकर पूरे देश में एक समान कानून लागू करने से होता है. UCC लागू हो जाने से पूरे देश में शादी, तलाक, उत्तराधिकार और अडॉप्शन जैसे सामाजिक मुद्दे सभी एक समान कानून के अंतर्गत आ जाते हैं, इसमें धर्म के आधार पर कोई अलग कोर्ट या अलग व्यवस्था नहीं होती.
भारत के संविधान के आर्टिल 44 में UCC को लेकर प्रावधान हैं. कहा गया है कि ‘राज्य भारत की सीमा के भीतर नागरिकों के लिए UCC की व्यवस्था सुनिश्चित कर सकता है.’ इस प्रावधान का मकसद धर्म के आधार पर किसी वर्ग विशेष के साथ होने वाले भेदभाव को खत्म करना बताया गया है.
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क्या कहता है UCC के बारे में इतिहास?
जून 1948 में, संविधान सभा के अध्यक्ष डॉ. राजेंद्र प्रसाद ने पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू को बताया था कि पूरे हिंदू समाज में जो छोटे छोटे अल्पसंख्यक समूह हैं, उनकी तरक्की के लिए पर्सनल लॉ में मूलभूत बदलाव लाने की ज़रूरत थी. सरदार पटेल, पट्टाभि सीतारमैया, एमए अयंगर, मदनमोहन मालवीय और कैलाशनाथ काटजू जैसे नेताओं ने हिंदू कानूनों में सुधार का विरोध किया था.
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समान नागरिक संहिता का इतिहास बताती एक रिपोर्ट यह भी कहती है कि दिसंबर 1949 में हिंदू कोड बिल पर जब बहस हुई थी, तब 28 में से 23 वक्ताओं ने इसके विरोध में मत रखा था. सितंबर 1951 में राष्ट्रपति प्रसाद ने साफ कहा थ कि अगर इस तरह का बिल पास हुआ तो वह अपने विशेषाधिकार और वीटो का इस्तेमाल करेंगे. बाद में नेहरू ने इस कोड को तीन अलग अलग एक्ट में बांट दिया और प्रावधान लचीले कर दिए.
क्या रहा UCC पर मुस्लिमों का रुख?
संविधान के आर्टिकल 44 से मुस्लिम पर्सनल लॉ को निकलवाने की तीन बार नाकाम कोशिश कर चुके मोहम्मद इस्माइल का मानना है कि एक सेक्युलर देश में पर्सनल लॉ में दखलंदाज़ी नहीं होना चाहिए. वहीं, हुसैन इमाम भी इस बारे में सवाल खड़ा कर चुके हैं कि भारत की छवि अनेकता में एकता की है और इतनी विविधता है, तो क्या पर्सनल कानूनों में एकरूपता क्या वाकई संभव हो सकती है?
इस बारे में लोग क्या सोचते हैं?
कुछ लोगों का मानना है कि पर्सनल लॉ व्यवस्था और UCC दोनों साथ में बने रह सकते हैं, तो कुछ लोग मानते हैं कि अगर UCC लागू होता है तो इसका मतलब ही पर्सनल लॉ का खत्म हो जाना होगा. एक वर्ग ये भी मानता है कि UCC लागू किए जाने से धर्म की स्वतंत्रता के अधिकार का हनन होगा.
न्यूज़18 क्रिएटिव
यह दलील दी जाती है कि इन तमाम कारणों से इसे संविधान के डायरेक्टिव प्रिंसिपल यानी निर्देशात्मक सिद्धांतों में शामिल किया गया है, मूलभूत अधिकारों के अध्याय में नहीं. बहरहाल, देखना दिलचस्प होगा कि भारत और फ्रांस में UCC को लेकर जारी बहस कब और कैसे निर्णायक मोड़ तक पहुंचेगी.