नई दिल्ली. हरियाणा विधानसभा चुनाव के नतीजे (Haryana assembly election results 2019) आ चुके हैं. ये कांग्रेस के लिए कुछ सबक लेकर आए हैं. 21 अक्टूबर से पहले तक सभी को यही संभावनाएं लग रही थीं कि मुख्यमंत्री मनोहर लाल खट्टर के नेतृत्व में हरियाणा में बीजेपी क्लीन स्वीप करेगी, पूर्ण बहुमत हासिल करेगी. कांग्रेस के लिए एक महीने पहले तक यहां कोई संभावनाएं नहीं दिख रही थीं. ये चुनाव नतीजे कांग्रेस के लिए आत्मविश्लेषण करने के लिए काफी हैं.
हरियाणा विधानसभा चुनाव को लेकर बीजेपी पूर्ण बहुमत के लिए आश्वस्त थी. बीजेपी का दावा था कि पार्टी को 90 विधानसभा सीटों वाले हरियाणा में 75 सीटें मिलेंगी. जबकि कांग्रेस के पास हरियाणा में कोई भी चुनावी रणनीति नहीं थी. कांग्रेस यहां बंटी हुई सी थी. चुनाव के कुछ हफ्ते पहले तक कांग्रेस ने चुनावी टीम भी नहीं नियुक्त की थी.
दूसरी ओर, मनोहर लाल खट्टर को लेकर यह चर्चा थी कि वह एक साधारण व्यक्ति हैं और वह ऐसे व्यक्ति हैं, जिन्होंने राज्य में एक स्वच्छ सरकार चलाई. खट्टर ने सिर्फ सरकारी कार्यप्रणाली के क्षेत्र में ही नहीं, हरियाणा में गैर जाट मतदाताओं को बीजेपी के फेवर में लाने को बेहतर काम किया.दुष्यंत चौटाला भी उभरे
हालांकि, जब हरियाणा चुनाव के नतीजे आने शुरू हुए तो खुद कांग्रेस को भी यह उम्मीद नहीं थी कि इतने कम समय में पार्टी इस तरह की चौंकाने वाली छलांग लगाएगी. इन चुनावों में इनेलो प्रमुख ओमप्रकाश चौटाला के पौत्र दुष्यंत चौटाला अपनी जननायक जनता पार्टी (जेजेपी) के साथ किंगमेकर की भूमिका में सामने आए. दुष्यंत चौटाला को बीजेपी और कांग्रेस दोनों पार्टियों का झुकाव मिला. क्योंकि ऐसा मानना था कि हरियाणा में अगली सरकार बनाने की चाबी दुष्यंत चौटाला के पास है.
हरियाणा विधानसभा चुनावों में कांग्रेस को सबसे अधिक समर्थन जाट समुदाय का मिला. जाट समुदाय के बीच सत्ताधारी बीजेपी के संबंध में गुस्सा और नाराजगी दिखी. ऐसा उनकी अवहेलना के चलते माना जा रहा है. मनोहर लाल खट्टर की सरकार जाटों को कोटा देने के वादे पर खरी नहीं उतरी. साथ ही मौजूदा दौर में चल रही मंदी के कारण भी जाटों का समर्थन कांग्रेस को मिला. जेजेपी को भी ऐसा ही समर्थन मिला.
स्थानीय नेताओं का महत्व
हालांकि कांग्रेस महाराष्ट्र और हरियाणा के विधानसभा चुनाव नतीजों से तीन सबक ले सकती है. पहली बात है स्थानीय नेताओं के महत्व की. दोनों ही राज्यों में चुनावों ने स्थानीय नेताओं के महत्व को एक बार फिर स्थापित कर दिया है. इन स्थानीय नेताओं ने केंद्रीय नेतृत्व पर निर्भर ना होकर अपने बूते पर ही चुनाव में अच्छा प्रदर्शन किया. महाराष्ट्र में तो कांग्रेस अदृश्य और नेतृत्वहीन ही दिखी. जबकि महाराष्ट्र की राज्य इकाई गुटबाजी के कारण कमजोर हुई.
तंवर को हटाना और शैलजा को जिम्मेदारी देना रहा अच्छा
हरियाणा में पूर्व मुख्यमंत्री भूपेंद्र सिंह हुड्डा के पास जाट समुदाय से ही होने का फायदा रहा. एक ओर जहां भूपेंद्र सिंह हुड्डा जाट समुदाय का समर्थन लेने में सफल रहे, वहीं कुमारी शैलजा को चुनाव से पहले हरियाणा कांग्रेस अध्यक्ष बनाने का भी फायदा पार्टी को मिला. कांग्रेस कुमारी शैलजा के जरिये गैर जाट वोट लेने में सफल रही. उनके जरिये कांग्रेस अनुसूचित जाति के मतदाताओं तक भी पहुंची.
इन चुनावों में कांग्रेस के लिए दूसरा सबक त्वरित निर्णय लेने से संबंधित है. पार्टी को मुद्दों पर त्वरित फैसला लेना सीखना चाहिए. यह कोई छिपी हुई बात नहीं है कि अशोक तंवर को राज्य पार्टी अध्यक्ष पद से पहले ही हटा देना चाहिए था और कुमारी शैलजा को यह पद दे देना चाहिए था.
तंवर इस मामले में उपयुक्त नहीं थे. तंवर को तत्कालीन कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ने नियुक्त किया था. लेकिन इस निर्णय के खिलाफ राज्य इकाई में विरोध हुआ था. पार्टी से इसको नजरअंदाज किया था. तंवर को चुनाव के तीन हफ्ते पहले ही पद से हटाया गया. इस दौरान हुड्डा ने भी पार्टी छोड़ने की चेतावनी दी थी. हालांकि, पार्टी नेताओं ने ठीक फैसला लिया और नई टीम को प्लान व रणनीति बनाने के लिए समय दिया. कांग्रेस अब हरियाणा में सरकार बनाने को लेकर संभावनाएं तलाश रही है.
नेतृत्व को लेकर करना होगा निर्णय
कांग्रेस के लिए इन चुनावों में तीसरा अहम सबक पार्टी नेतृत्व के संबंध में है. कुछ महीने पहले पार्टी ने सोनिया गांधी को अंतरिम अध्यक्ष के रूप में चुना था. लेकिन इन चुनावों में सोनिया गांधी की ओर सक एक भी चुनाव अभियान या रैली नहीं की गई. पूर्व अध्यक्ष राहुल गांधी ने हरियाणा में महज दो रैलियां कीं. पार्टी के अधिकांश बड़े नेता चुनावी अभियान से दूर रहे. इन अभियानों को राज्यों के नेताओं ने ही संभाला. इसका अंतिम परिणाम केवल इस बात को पुष्ट करते हैं कि राहुल गांधी ने हरियाणा में पार्टी के पक्ष में कोई महत्वपूर्ण योगदान नहीं दिया है.
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं. यह उनके निजी विचार हैं)